जब वामपंथियों ने समाज में समान वितरण का, आर्थिक व्यवस्था का, इक्विटी का मॉडल प्रेजेंट किया तो उन्होंने उसमें बच्चों को क्यों रखा? क्योंकि समाजवाद आपको ऐसे ही देखता है. उसके मस्तिष्क में यह एडल्ट्स का नहीं, इन्फेंट्स का समाज है और वे इसके अभिभावक हैं.
एक बड़ा ही पॉपुलर मीम है, जो”इक्वलिटी” और “इक्विटी” के बीच का अंतर बताता है.
बेसबॉल का मैच चल रहा है और तीन बच्चे मैदान के बाहर से मैच देख रहे हैं. मैदान में फेंस लगी है. तीनों बच्चे अलग अलग लंबाई के हैं. तीनों के पास एक एक लकड़ी के बक्से हैं जिनपर खड़े होकर वे मैच देखने की कोशिश कर रहे हैं. सबसे लंबा लड़का बिना बक्से पर खड़ा हुए भी मैच देख सकता है, लेकिन सबसे छोटा लड़का उसपर खड़े होने के बावजूद नहीं देख सकता.
तीनों के पास एक एक बक्से हैं, यह इक्वलिटी है. लेकिन सबसे लंबे लड़के से लेकर सबसे छोटे को दे दिया गया जो अब दो बक्सों पर खड़े होकर मैच देख सकता है…यह इक्विटी है.
देखने से यह मॉडल बहुत ही आकर्षक और न्यायपूर्ण लगता है. लेकिन इसमें कुछ बहुत ही फंडामेंटल गलतियां हैं… Assumptions और pitfalls हैं.
पहला, यह मान लिया गया है कि उस मैदान के बाहर लगा बाड़ा और तीन बक्से कॉन्स्टेंट हैं…वे हमेशा रहेंगे. मैच देखने की वही एक जगह है, और तीन ही बक्से हैं और पूरी समस्या सिर्फ उनके वितरण की है.
वे बक्से कहां से आए जिनपर खड़े होकर वे बच्चे मैच देख रहे हैं? किसी ने उन्हें बनाया.
उन तीन लोगों में से किसे उस बक्से की सबसे अधिक जरूरत है और किसे उन्हें बनाकर या उसपर खड़े होकर मैच देखने का आइडिया आएगा? लंबे लड़के को तो बिल्कुल नहीं, क्योंकि उसे जरूरत ही नहीं है. इसकी संभावना ही अधिक है कि सबसे छोटे लड़के को इसकी आवश्यकता महसूस होगी और वह लकड़ी खोजेगा, उसके बक्से बनाएगा और उसपर खड़े होकर मैच देखने का इंतजाम करेगा. इस तरह उसके पास एक स्किल आएगा…उसे मालूम रहेगा कि लकड़ी के पटरे कहां पड़े हैं, घर से वह हथौड़ी और कीलें लेकर आएगा और बेकार पड़े लकड़ी के पटरे जो कि जलावन के काम आते, उन्हे एक उपयोगी चीज में बदल देगा. वह वहां आने वाले दूसरे बच्चों को भी ये बक्से बेचेगा, और शायद सबसे लंबे लड़के के लिए भी एक स्टूल बना देगा और वह खड़े रहने के बजाय बैठ कर मैच देख सकेगा. वह लड़का जिसने बक्से बनाना सीखा, अब ना सिर्फ मैच देख सकेगा बल्कि उसके पास चिप्स का बैग और कोक की बॉटल के लिए पैसे भी होंगे. यह भी हो सकता है कि उनमें से कोई एक ऐसी ऊंची जगह खोज ले जहां से सभी फेंस के पार से मैच देख सकेंगे. कोई वहां उन्हीं पटरों से एक बेंच बना देगा जिसपर सभी बैठ कर मैच देख सकेंगे. वह उनसे बेंच पर बैठने के पैसे लेगा, और कोई तीसरा पास में कोक और पेप्सी बेचने का जुगाड़ कर लेगा. यानि एक पूंजीवादी व्यवस्था विकसित हो जायेगी.
अब आते हैं वामपंथी… उन्हें यह पसंद नहीं आएगा कि यह सब बिना उनकी मर्जी के क्यों हो रहा है. वे आकर बेकार पड़े लकड़ी के पटरों को सार्वजनिक संपत्ति घोषित कर देंगे, और हथौड़े से कील ठोकने के काम को एक खतरनाक काम घोषित कर देंगे जो बिना उनके परमिशन और लाइसेंस के कोई नहीं कर सकता. वे यह भी सीमित कर देंगे कि बक्से तीन से ज्यादा नहीं हो सकते और एक खास ऊंचाई से अधिक नहीं बनाये जा सकते. वे सबसे छोटे लड़के को यह आश्वासन भी देंगे कि उसे अब कील हथौड़े से काम करने और बक्से बनाने की कोई जरूरत नहीं है, दो बक्सों पर खड़े होकर मैच देखना उसका अधिकार है, और वह लंबा लड़का “टॉल प्रिविलेज” ले रहा है. अब वह लंबा लड़का और छोटा लड़का लड़ रहे होंगे और कोई मैच नहीं देख रहा होगा.
आप समानता नहीं खोज रहे होते हैं, आप संपन्नता खोज रहे होते हैं. संपन्नता आती है स्वतंत्रता से. जिन लोगों को यह पता होता है कि संपदा का सृजन कैसे होता है, जब वे यह करने के लिए स्वतंत्र होते हैं तो संपन्नता आती है. जब उस छोटे लड़के को स्वतंत्रता मिलती है तब बेकार पड़े लकड़ी के पटरे जलावन में जाने के बजाय लकड़ी के स्टूल और बेंच बन जाते हैं. आर्थिक स्वतंत्रता सभी मानव उपलब्धियों की जननी है. समानता प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है. असमानता ही सभी मानव उपलब्धियों का श्रोत है. जो लोग इस असमानता में निचली सीढ़ी पर हैं उनके पास इसकी भरपाई करने के लिए अधिक परिश्रम करने का और नए उपाय खोजने का सबसे अधिक इंसेंटिव होता है. जब कोई तीसरा आकर इक्विटी स्थापित करने बैठता है तो वह इस इंसेंटिव स्ट्रक्चर को नष्ट कर देता है. समान वितरण की धारणा उत्पादकता को नष्ट कर देती है और मानव सभ्यता को विपन्न बना देती है.
पर इस चित्र में तो सभी बच्चे हैं, वे कील हथौड़े का प्रयोग कैसे करेंगे? वे लकड़ी के बक्से, स्टूल और बेंच कैसे बनाएंगे?
यह सबसे महत्व की बात है. जब वामपंथियों ने समाज में समान वितरण का, आर्थिक व्यवस्था का, इक्विटी का मॉडल प्रेजेंट किया तो उन्होंने उसमें बच्चों को क्यों रखा? क्योंकि समाजवाद आपको ऐसे ही देखता है. उसके मस्तिष्क में यह एडल्ट्स का नहीं, इन्फेंट्स का समाज है और वे इसके अभिभावक हैं. समाजवाद व्यक्ति से शिशुवत व्यवहार ही नहीं करता, वह व्यक्तियों को जिम्मेदार वयस्कों के बजाय असहाय शिशुओं में बदल देता है जो सत्ता पर आश्रित हो जाते हैं.