वह भारत का योद्धा था

कारागार की उस अंधेरी कोठरी में तीन दिन से कोई नहीं आया था। दोनों बंदियों को इन तीन दिनों में भोजन के लिए एक रोटी भी नहीं दी गयी थी। उनका शरीर अशक्त हो रहा था, पर उनका साहस अब भी योद्धाओं वाला था। हो भी क्यों न! उनमें से एक वह था जिसने पिछले दस वर्षों में छोटी-बड़ी दो सौ लड़ाइयाँ लड़ी थीं, और एक बार भी पराजित नहीं हुआ था। और दूसरा था उसका कवि मित्र और सेनानायक….

चौथे दिन उस अंधेरी कोठरी में एक मशाल के प्रकाश के साथ एक हरकारे ने प्रवेश किया। दोनों बन्दी चैतन्य हुए। हरकारे ने कहा, “बादशाह आलमगीर का सन्देश है तुम्हारे लिए! तुम यदि इस्लाम स्वीकार कर लो तो तुम्हारी जान बख्श दी जाएगी..”

बन्दी मुस्कुराए। उनमें से एक ‘जो विशाल और सुन्दर शरीर वाला था’ ने हरकारे को इशारे से अपने पास बुलाया। हरकारा मन ही मन प्रसन्न हुआ। वह मुस्कुराते हुए निकट गया। बन्दी ने मुस्कुरा कर उसके चेहरे को निहारा और उसके मुँह पर थूक दिया। फिर बोला, ” प्राण बचाने के लिए धर्म बदल लेने की नीचता हमारी सेना के घोड़े भी नहीं करेंगे सैनिक! फिर तुम तो स्वयं शिवाजी राजे के बेटे के सामने खड़े हो… कह दो औरंगजेब से! शेर कभी सियारों का रथ नहीं खींचते….”

हरकारा बिलबिला उठा। उसने सैनिकों को आज्ञा दी, हथकड़ी-बेड़ियों में जकड़े बंदियों को दरबार में पेश किया गया। औरंगजेब के सामने…

औरंगजेब को किसी ने मुस्कुराते हुए नहीं देखा था। वह शक्ल से ही अत्यंत क्रूर दिखता था। उसने बन्दी के चेहरे पर अपनी दृष्टि गड़ाई और बोला, “सम्भाजी! धरम बदल लो, छोड़ दूंगा… नहीं तो अब भागने का कोई रास्ता नहीं है। जान चली जाएगी…”

तीन दिन से बिना अन्न-जल के बन्दी पड़े उस योद्धा के शरीर में जाने कितना साहस भरा था। वह गरजा, “भगवा देखे हो सुल्तान? भगवा केवल जीवन का ही नहीं, मृत्यु का भी रङ्ग है। माथे पर भगवा बांध कर लड़ने वाले योद्धाओं को मृत्यु का भय न दिखाओ औरंगजेब! तुम्हारे कहने पर तो मैं वस्त्र भी न बदलूँ, तुम तो धर्म की बात कर रहे हो…”

औरंगजेब के माथे पर पसीना चमकने लगा। उसने क्रोध में आँखें चढ़ाईं और गरजा- इसके दोनों हाथ काट दो…

कुछ पल लगे, सम्भाजी राजे के दोनों हाथ काट डाले गए। उनका शरीर असह्य पीड़ा से कांप उठा। औरंगजेब ने फिर कहा, “अब बोलो! अब भी समय है…”

” धर्म का व्यपार हिजड़े करते हैं औरंगजेब, मर्द नहीं… अपना काम करो औरंगजेब! सम्भाजी भोसले पराजित होने वाले व्यक्ति का नाम नहीं।” शरीर का बल समाप्त हो रहा था, पर सम्भाजी का साहस आसमान में था।

“इसकी जीभ काट दो…इसके दोनों पैर भी काट दो…” औरंगजेब गरजा।

कुछ क्षण लगे, छत्रपति सम्भाजी राजे भोसले की जीभ और दोनों पैर भी काट दिए गए। अब उनके शरीर में बिल्कुल भी बल नहीं रह गया, चेतना चली गयी… शरीर बेहोश था पर आँखें खुली हुई थीं। जैसे कह रही हों, “तुम मूर्ख हो आलमगीर! कैद हो जाने से शेर बकरी की भाषा नहीं बोलता..”

औरंगजेब ने इशारा किया, और सम्भाजी की गर्दन काट दी गयी। औरंगजेब उठा और बुदबुदाया, “तुम कहीं भी पराजित नहीं हुए शिवाजी! तुम्हारे बेटे जैसा मेरा एक बेटा भी होता तो आज पूरा हिन्दोस्तान मेरा होता…”