ये मानस को जलाने वाले

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  • Post category:Sanatan
  • Post last modified:January 30, 2023
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भारत में अस्पृश्यता पर, छुआछूत पर, भेदभाव पर और ऐसी मानसिकता वाले लोगों पर सबसे अधिक चोट अगर किसी ने की तो वो महर्षि दयानंद सरस्वती और उनकी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश थी।

उन्होंने वैसे किसी को भी नहीं छोड़ा जिसने अपने आचरण से, अपने व्यवहार से, अपनी लेखनी से हिंदू समाज में भेद बढ़ाएं, उन्हें क्लीव बनाया, उनके अवमूल्यन की कोशिश की और उनमें पराधीनता का भाव बोया।

जानते हैं महर्षि की आलोचना से जो चंद लोग बच पाए उनमें एक तुलसीदास थे। तुलसी को वो कहीं न कहीं समग्र क्रांति का , समदर्शिता का, हिंदू एकता का प्रतीक मानते थे और इसीलिए वैष्णव पंथ की आलोचना करते हुए भी वो तुलसी की आलोचना का साहस नहीं दिखा सके।

जिन अर्थों में शब्दों की व्याख्या महर्षि दयानंद करते थे उन्हीं अर्थों में तुलसी ने भी की। तुलसी को जो लोग भी ब्राह्मण हितैषी कहते हैं उन्हें पता नहीं कि समग्र तुलसी साहित्य में ब्राह्मण शब्द केवल चार बार आया है बाकी जगह उनके द्वारा गुणबोधन द्वारा शब्द “विप्र” का प्रयोग किया गया है।

“पराधीन सपनेहुं सुख नहीं” और “जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी।।” कहकर स्वाधीनता का बोध कराने वाले तुलसी ने जनता को राम राज लाने के लिए प्रेरित किया यानि तत्कालीन अधम सत्ता के विरुद्ध समाज को उद्वेलित किया।

तुलसी भक्ति काल में अकेले थे जिसने राम और हनुमान का नाम जपने से अधिक उनके पौरुष को जीने का संकेत दिया। हनुमान को न केवल “असुर निकंदन” कहा बल्कि जगह -जगह शूरवीरता का संकेत देती हनुमत प्रतिमा स्थापित कराई। समाज में राम का पौरुष स्थापित करने के लिए रामलीलाएं आरंभ कराई और वो भी विशेषकर उस समाज के लिए जिसके कुछ मूर्ख आज तुलसी की “मानस” जला रहे हैं।

“जातीय अभिमान” जितना घृणित है उतना ही घृणित “जातीय कुंठा” भी है; क्योंकि एक अपने से नीचे माने जाने वाले समाज को महत्व नहीं देना चाहता और दूसरा अपने से ऊपर माने जाने वर्ग के लिए बेवजह घृणा रखता है।

हिंदू मानसिकता की सोच का यही कोढ़ हिंदू जाति के पराभूत होने का कारण है।