बचपन की गाँव की एक याद है। एक अपराधी प्रवृत्ति का व्यक्ति था गाँव में। साल में कम से कम एक बार पुलिस उसे सुबह उठा ले जाती थी। शाम में जब वह लौटता, तो ताँगा स्टैंड से उसके घर तक की तीन सौ मीटर की दूरी तय करने में उसे लगभग एक घंटा लगता था। पूरे समय करहाता हुआ। गली की छह इंच चौड़ी नाली पार करने के लिए भी किसी बच्चे को सहारा देने के लिए बुलाता। अब पुलिस कस्टडी पिकनिक हो चली है। The way our permanent bureaucracy has folded under pressure of the vote bank managers is really unbelievable. (उत्तरदायी no doubt हम जनता ही है। वोट बैंक मैनेजरो को वोट तो हम ही देते है। व जब वोट बैंक मैनेजर भाईजान को दामाद की भाँति रखते है तो react भी नहीं करते है। कवाल में दो हिंदुओ के हत्यारों को आज़म खान ने छुड़वाया था। समाज ने react किया तो न आज़म खान आज तक उभरा है, न अखिलेश। बल्कि अखिलेश ने तो आज़म खान से दूरी भी बना ली है desperation में। सत्य यही है कि जब तक हम हिंदू एक साथ सड़कों पर उतरना नहीं सीखेंगे, हर परिवार की अंकिता एक एक कर जलायी जाती रहेंगी।)