चालीस-पैंतालिस या उससे कम आयु वालों के हाथों में भविष्य को थोड़ा सा बदलना तो होता है, कम से कम वो किया जा सकता है।
हम “शुगर फ्री पीढ़ी” क्यों कहते हैं? क्योंकि आप जिनका दोष “कूल डूड” पीढ़ी पर डाल रहे होते हैं उनमें से अधिकांश की जिम्मेदार यही शुगर फ्री पीढ़ी है। फ़िलहाल इनकी हालत ये है कि डाईबिटिज या बढ़े शुगर की वजह से चाय बिना चीनी वाली पीते हैं। इसलिए इनका नाम भी “शुगर फ्री पीढ़ी” रखा हुआ है। ये कैसी मुर्दा पीढ़ी थी, इसका अनुमान आप इस बात से लगा सकते हैं कि कुल जमा 191 सांसदों के साथ जोड़-तोड़ के पी.वी.नरसिम्हा राव ने सरकार बना रखी थी। उस सरकार ने इनकी छाती पर बूट रखकर पूजा स्थल (विशेष अधिनियम) कानून बना डाला। उसी ने एक वक्फ बोर्ड बनाने का कानून भी बनाया था, जो किसी जमीन को वक्फ संपत्ति घोषित कर सकती है और उसके खिलाफ आप उच्च न्यायालयों में भी नहीं जा सकते!
इसकी तुलना आप कूल डूड पीढ़ी से करके देखिये। छप्पन इंची कहलाने वाली पूरे 300 पार की सरकार को घुटनों पर लाकर किसान बिल/कानून वापस करवा देती है 1995 में पैदा होकर 2020 में युवा कहलाने वाली कूल डूड पीढ़ी। किस बात का दम भरते हैं ये शुगर फ्री पीढ़ी के बुढऊ? कहीं जो ढंग से अपनी अगली पीढ़ी को हिंदुत्व के बारे में सिखाया होता, तो एक झटके में नहीं हटते ये कानून? जो मोदी सरकार 1800 के लगभग ना इस्तेमाल होने वाले नियमों को हटा चुकी, वो इन्हें भी बदलती। शुगर फ्री पीढ़ी की एक बड़ी ग़लतफ़हमी है कि मोदी आ गया इसलिए भारत में बदलाव हो रहे हैं। लोकतंत्र इसका उल्टा चलता है। बदलाव समाज में आ गए थे और उनकी वजह से मोदी को सत्ता मिली है।
ये हर तरफ देखने को मिल जाएगा। कौन सी किताबें बेस्ट सेलर होती थीं, उनमें देखिये। अगर पाठ्यक्रम का हिस्सा न हों तो रोमिला थापर, गुहा जैसों की किताबें आज नहीं बिकती। इरावती कर्वे जैसे लोग महाभारत पर क्या लिखते हैं, या “अंधा युग” जैसे नाटकों में किसी की रूचि नहीं रही। पढ़ी जाएगी तो दाहिनी ओर झुकाव वाली अमिश त्रिपाठी की किताबें पढ़ी जाएँगी। फिर जैसे ही वो श्री राम पर उपन्यास लिखते समय दाहिनी तरफ कम झुका दिखेगा, तो उसे भी गालियाँ पड़ेंगी। देवदत्त पटनायक छल से बेस्टसेलर बन भी गया तो दस वर्षों के भीतर ही उसे पहचान कर दूर किया जाने लगेगा। किसी दौर में देखा था हिंदुत्व की ओर से लिखी गयी इतनी सारी इतिहास, समाजवाद, कथा-साहित्य की पुस्तकों का ढेर? शुगर फ्री पीढ़ी तो गुरुदत्त, के.एम. मुंशी, या आचार्य चतुरसेन जैसों का नाम तक लेते हिचकती रही।
यही आपको स्कूल-कॉलेजों के नाम में दिख जायेगा। गोवा इन्क्विजिशन के दौरान हजारों हिन्दुओं की हत्या, बलात्कार, यातना और धर्म परिवर्तन का अपराधी था फ्रांसिस ज़ेवियर। आज करीब-करीब हर शहर-कस्बे में आपको कोई सैंट ज़ेवियर स्कूल-कॉलेज मिल जाता है। हत्यारे उपनिवेशवादी के नाम पर बने ये स्कूल-कॉलेज शुगर फ्री पीढ़ी के दौर के ही हैं। आज कोई नया स्कूल-कॉलेज खोलना हो तो क्या सैंट जोसफ, सैंट मेरी जैसे नाम आवश्यक हैं? बिलकुल नहीं! गोयनका, बालाजी, विश्वनाथ, सरस्वती, किसी नाम से नया स्कूल-कॉलेज बने तो उसमें छात्र-छात्राएं भर्ती होंगे ही। ये अलग बात है कि यहाँ भी कूल डूड और डूडनी को पढ़ा रहे लोग वही चालीस से पचपन के लपेटे में आने वाले शुगर फ्री वाले होंगे, तो हिंदुत्व की चर्चा शायद ही हो।
ये स्थिति तबतक नहीं सुधर चुकी नहीं मानी जा सकती जबतक सनातन की विचारधारा के लोग “आई एम स्पिरिचुअल, नॉट रिलीजियस” कहना बंद नहीं कर चुके होते। गौरतलब होगा कि अध्यात्मिक हूँ, धार्मिक नहीं की बकवास आपको केवल हिन्दू ही करते हुए सुनाई देंगे। ऐसा तब है जब हॉवर्ड से लेकर ऑक्सफ़ोर्ड तक के सभी आज के नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों की स्थापना “थियोलोजी” यानि रिलिजन से सम्बंधित पढ़ाई के लिए ही हुई थी। आज भी ये विभाग इन विश्वविद्यालयों का सबसे बड़ा विभाग होता है और यहाँ से पढ़कर लोग चर्च के पास्टर इत्यादि बनते हैं। आवश्यक है कि आने वाली पीढ़ियों को कोसने में समय खराब करने के बदले यथासंभव उन्हें “सेकुलरिज्म” के खतरे समझाए जाएँ।
बाकी भारत की एक-दो पीढ़ियाँ तो धर्म से मुख मोड़ते, धर्मनिरपेक्षता का झूठ परोसते गुजरी ही है। चालीस-पैंतालिस या उससे कम आयु वालों के हाथों में भविष्य को थोड़ा सा बदलना तो होता है, कम से कम वो किया जा सकता है।